सोशल मीडिया के इस जमाने में हर महीने इंटरनेट पर हमें कुछ नया देखने को जरुर मिलता है। नवंबर का महीना आते ही फेसबुक, ट्वीटर से लेकर इंस्टाग्राम तक हर जगह नो शेव नवंबर के चर्चे शुरु हो जाते है। नो शेव नवंबर के महीने में कोई भी व्यक्ति अपनी दाढ़ी-मूंछ के बाल नहीं कटवाता और ना ही उसे ट्रिम या ग्रूम करता है। यह थीम ऑफिस और कॉलेज जाने वाले युवाओं के बीच काफी ज्यादा ट्रेंड करती है। काफी लोग केवल शौक में या फैशन को देखते हुए नो शेव नवंबर को अपना लेते है, क्योंकि उन्हें इसके पीछे की असली वजह मालूम ही नहीं होती है।
नो शेव नवंबर की शुरुआत साल 1999 में ऑस्ट्रेलिया के मेलबर्न शहर से हुई थी। इसके पीछे मकसद था कि नवंबर महीने में शेव ना बनवाकर उसके बचे हुए पैसों से कैंसर पीड़ितों की मदद की जाए। इस मुहिम को असली पहचान 2004 में मिली थी, जब एक मुवेंबर नाम की संस्था ने इसे अपनाया था। और तभी से नो शेव नवंबर पूरे विश्व में प्रसिद्ध हो गया। आज इसी मुहिम से हर साल लाखों मिलियन डॉलर की सहायता कैंसर पीड़ितों के इलाज के लिए जुटाई जाती है। भारत में नो शेव नवंबर मुहीम ने 3-4 वर्ष पहले रफ्तार पकड़ी थी। इसके बाद से ही हर साल भारत में भी यह लोगों के बीच यह काफी पॉपुलर होने लगा। लेकिन अपने देश में यह मुहीम केवल फैशन तक ही सिमट कर रह गई है। लाखों लोग नवंबर में दूसरों को देखकर दाढ़ी तो बढ़ा लेते है, लेकिन वे ऐसा क्यों कर रहे है इस बात से अनजान रहते है।
अगर केवल भारत में 1 करोड़ लोग नवंबर महीने में शेव और ट्रिमिंग के पैसे बचाते है और मान लें कि एक व्यक्ति औसतन मात्र 100 रुपए दाढ़ी बनाने पर खर्च करता है तो इस तरह भारत की ओर से 100 करोड़ का फंड कैंसर पीड़ितों के लिए जुटाया जा सकता है। हालांकि अगर बीयर्ड ऑइल, शैंपू और कंडिशनर आदि का खर्च भी इसमें जोड़ दिया जाए तो इसकी आकड़े की संख्या कहीं ज्यादा हो सकती है।
अगर आप भी अभी तक केवल फैशन या दूसरों की देखा-देखी इस मुहीम को अपना रहे थे तो अब वास्तव में इस मुहीम का हिस्सा बनें और जितना हो सकें कैंसर पीड़ितों की मदद करने की कोशिश करें। क्योंकि वे भी हमारे अपने ही भाई-बहन है, जो अपना इलाज कराने में असहाय और असमर्थ है। हमारा ये छोटा सा फैसला किसी व्यक्ति को एक नया जीवन प्रदान कर सकता है।