देश में जब भी शहीदों की बात होती है तो शहीद भगत सिंह का नाम टॉप लिस्ट में गिना जाता है। परंतु शायद आपको ये बात जानकर हैरानी होगी भारत सरकार ने आजतक भगत सिंह को शहीद का दर्जा नहीं दिया है। यह बात एक आरटीआई से सामने आई थी। लेकिन भारत की जनता को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि भगत सिंह को शहीद का तमगा दिया गया है या नहीं। हम आज भी उन्हें शहीद की नज़रों से ही देखते है और उतना ही सम्मान देते है।
अक्सर जब भी भगत सिंह की बात का ज़िक्र होता है तो मुद्दा घूम-फिरकर महात्मा गांधी पर जरूर आता है। आज भी लोग गांधी को भगत सिंह का हत्यारा मानते है। इसके ऊपर लोग सोशल मीडिया पर तमाम पोस्ट और मेसेज भी शेयर करते है, लेकिन इसके पीछे की असलियत से लोग आज भी अनजान है। आज हम आपको भगत सिंह और महात्मा गांधी से जुड़े कुछ तथ्य स्पष्ट रूप से बता रहे है।
बात 1928 में शुरू हुई थी। उस समय भारत में सभी जगह साइमन कमीशन का भरपूर विरोध किया जा रहा था। इस विरोध प्रदर्शन में लाला लाजपत राय भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहे थे। एक दिन प्रदर्शन के दौरान ब्रिटिश पुलिसकर्मियों ने उन पर लाठीचार्ज कर दिया, जिसमें वह बुरी तरह घायल हो गए और कुछ दिनों में ही उनकी मृत्यु हो गई। लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए भगत सिंह ने अपने साथियों के साथ मिलकर एक पुलिस सुपरिंटेंडेंट की हत्या की साजिश रची, लेकिन थोड़ी-सी चूक के कारण एक अन्य पुलिस अधिकारी सांडर्स की हत्या हो गई। सांडर्स की हत्या के बाद भगत सिंह और उनके साथी भाग निकलें। भगत सिंह शुरु से ही हिंसक प्रदर्शन कर देश को आज़ादी दिलाने की विचारधारा रखते थे। वे पूरी तरह से नास्तिक थे और भगवान पर किसी प्रकार की आस्था नहीं रखते थे। वे कार्ल मार्क्स और कम्युनिस्ट विचारधारा से काफी ज्यादा प्रभावित थे।
सांडर्स की हत्या के बाद भी भगत सिंह शांत नहीं हुए और उन्होंने अपने मित्र बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर नैशनल असेंबली पर बॉम्ब ब्लास्ट कर दिया। इस ब्लास्ट में किसी प्रकार की जन-हानि नहीं हुई थी। भगत सिंह इस ब्लास्ट के ज़रिए केवल ये बताना चाहते थे कि भारतीय जनता ने हाथों में चुड़ियां नहीं पहन रखी है और वह ब्रिटिश सरकार से मुकाबले के लिए पूरी तरह से तैयार है। इस ब्लास्ट के बाद भगत सिंह ने सरेंडर कर दिया। उनका मानना था कि ब्लास्ट के बाद अगर वह भाग जाते तो ये उनकी कायरता दर्शाता। इसके बाद ब्रिटिश सरकार ने उन्हें जेल में डाल दिया और 24 मार्च को उनकी फांसी का एलान भी कर दिया। भगत सिंह को ये फांसी की सजा नैश्नल असेंबली पर ब्लास्ट करने के लिए नहीं बल्कि सांडर्स की मौत के जुर्म में सुनाई गई थी। वहीं उनके साथी बटुकेश्वर दत्त को काला पानी की सजा दे दी गई थी।
दूसरी ओर ब्रिटिश सरकार ने गोल मेज सम्मेलन का आयोजन किया। लेकिन कॉन्ग्रेस और गांधी ने इस सम्मेलन का बहिष्कार किया और नतीजनत ये आयोजन विफल साबित हुआ। द्वितिय गोल मेज सम्मेलन में ऐसा ना हो इसके लिए गांधी और तत्कालीन वायसरॉय लॉर्ड इरविन के बीच एक समझौता हुआ। 17 फरवरी 1931 को इस समझौते पर बातचीत शुरू हुई। गांधी ने इरविनन के सामने कई शर्ते रखी, जिसमें मुख्य तौर पर अहिंसक प्रदर्शन कर रहें लोगों को जेल से रिहा करने और सत्याग्रहियों की जब्त संपत्ति लौटाने जैसी शर्ते शामिल थी। इरविन उस समय इतने दबाव में था कि वह गांधी की सारी शर्ते मानने के लिए तत्पर हो गया। गांधी की शर्तों की सूची में भगत सिंह की फांसी की सजा माफ करने का मुद्दा शामिल नहीं था। गांधी, भगत सिंह द्वारा उठाए गए फैसले से बिल्कुल खुश नहीं थे क्योंकि वे हमेशा से ही अहिंसा को ही अपना धर्म मानते आए है। गांधी चाहते तो वह इरविन पर भगत सिंह की फांसी रोकने को लेकर जोर डाल सकते थे। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। और 5 मार्च 1931 को गांधी और इरविन ने समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए।
गांधी के अनुसार भगत सिंह की फांसी की बात समझौते से अलग थी और ये दोनों बाते एक साथ नहीं की जा सकती थी। हालांकि इसके बाद गांधी ने भगत सिंह की फांसी रुकवाने के कई प्रयास किए। उन्होंने कई बार वायसरॉय से मुलाकात की। लेकिन उन मुलाकातों में गांधी ने एक बार भी भगत सिंह की सजा माफ करने की बात नहीं की। वे बस इतना कहते कि भगत सिंह की सजा को कुछ दिन के लिए टाल दिया जाए। इरविन गांधी की इस बात पर सहमत नहीं हुए। उनका कहना था कि अगर उन्होंने भगत सिंह की फांसी टाली तो यह ब्रिटिश सरकार की नाकामी को दर्शाएगा। 23 मार्च की सुबह भी गांधी ने इरविन को एक अनौपचारिक पत्र लिखकर फांसी की सजा टालने की विनती की। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी और भगत सिंह को उनकी फांसी की सजा वाले दिन से एक दिन पहले शाम को ही फांसी पर चढ़ा दिया गया। भगत सिंह के साथ राजगुरू और सुखदेव को भी फांसी दे दी गई। भारत माता के ये तीन वीर सपूत वंदेमातरम का गान करते हुए हंसी-हंसी फांसी पर लटक गए।
भगत सिंह की प्रवृति हमेशा से ही आक्रमक रही है। उनके पास खुद भी अपनी फांसी रुकवाने का एक अवसर मौजूद था। कोर्ट में उनसे ब्रिटिश सरकार से अपने किए कारनामें को लेकर माफी मांगने को कहा गया। लेकिन एक वीर जवान कभी अपने फैसले पर अफसोस नहीं करता। माफी मांगने की बात भगत सिंह को किसी कीमत पर मंजूर नहीं थी। उन्होंने तो अदालत में यहां तक कह दिया था कि फांसी के बजाय भले ही उन्हें तोप से उड़ा दिया जाए, लेकिन वह माफी कभी नहीं मांगेगे। भगत सिंह की फांसी के बाद महात्मा गांधी के प्रति युवाओं के अंदर काफी आक्रोश था। कराची में उनका स्वागत काले कपड़े की बनी फूलों की माला से किया गया और गांधी मुर्दाबाद जैसे नारें भी लगाए गए। इसके बाद गांधी ने कई बार अपने भाषण में सफाई पेश करने की कोशिश की और कहा कि भगत सिंह की फांसी रुकवाने के लिए उन्होंने पूरी कोशिश की। लेकिन भारत सभा के लोगों ने गांधी की एक नहीं सुनी और उन्हें ही भगत सिंह का हत्यारा घोषित कर डाला।
आज भी कई राजनैतिक दल गांधी को ही भगत सिंह का असली हत्यारा मानते है। लेकिन ये लोग असलियत पढ़े बगैर केवल अपने राजनैतिक मकसद और दूसरी पार्टियों को नीचा दिखाने के लिए ऐसा कर रहे है। भगत सिंह और गांधी का मकसद एक ही था, – देश की आज़ादी। वे दोनों ही अंग्रेज़ों के हाथों अपनी देश की जनता का शोषण होते हुए नहीं देख सकते थे। फिर भले ही दोनों का मार्ग थोड़ा अलग क्यों ना, मंजिल तो दोनों की एक ही थी।