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डिजिटल मीडिया के दौर मे हिंदी भाषा का विविध विस्तार!

भारत के लिए एक बड़ी ही मशहूर कहावत है, कोसकोस पर पानी बदलेचार कोस पर वाणी इस कहावत पर अगर विचार किया जाए तो क्या हर चार कोस में भाषा का बदलना हमारे पिछड़ेपन का प्रतीक नहीं क्या यह नहीं दर्शाता कि भारत की एक बहुत बड़ी जनसँख्या अपने चार कोस की सीमा से बाहर निकल ही नहीं पाती है, निकलने की ज़रुरत भी शायद नहीं पड़ती है। इसी चार कोस के गांवों में इनके तमाम आत्मीय, मित्र मिल जाते हैं। इसी चार कोस के दायरे में इनकी खेती-बाड़ी, शादी-ब्याह, व्यापार, बाज़ार इत्यादि की ज़रूरतें भी पूरी हो जाती हैं। मगर क्या भाषाओं का अपने अपने चार कोस के वृत्त में सिमटे रहना गर्व आज भाषा की जो स्थिति है, वह कभी समय की भी थी।

अंग्रेजी की तरह हिंदी का विकास क्यों संभव नहीं हो पाया है। हिंद-हिंदी-हिन्दुस्तान के सतही नारे लगाते किसी भी स्व-घोषित भाषा के रक्षक से बातचीत कर पता चल जाता है कि हमारी भाषा के पतन में इनका बड़ा योगदान है। हिंदी लेखक-व्यंगकार हरिशंकर परसाई ने हमें इसी पिछड़ी हुई मानसिकता के ख़िलाफ़ आगाह किया था। उन्होंने लिखा था कि हिंदी भाषा का विकास तब तक संभव नहीं है जब तक हम लोक भाषाओं और उर्दू को न अपनाएँ । भाषा के सन्दर्भ में इस बात को समझना आवश्यक है |

हमारे अपने देश में समय देखने का रिवाज़ नया है। पहले सूरज की स्थिति और पहर नाप कर समय का अंदाज़ा लगा लिया जाता था। घड़ी के निर्माण के बाद भी पश्चिमी देशों में एक लम्बी अवधी थी जब हर गांव में चर्च द्वारा नियुक्त समयपाल घण्टाघर का समय रखता था। हर गांव अपने समय का हिसाब रखता था। यह उन्नीसवीं सदी में रेलरोड के विकास के साथ बदला। लोग अब अपने एक छोर से दूसरे छोर तक सफर करने लगे। इससे जन्मी अनियमित्ता और अव्यवस्था से जूझने के लिए समय के मानकीकरण की ज़रुरत महसूस हुई। न सिर्फ एक प्रान्त में बल्कि विश्व व्यापी रूप से समय की देखरेख करने के लिए ग्रीनविच मीन टाइम को मानक मानकर संसार के विभिन्न देशों में समय क्षेत्र के अनुसार समय का निर्धारण किया गया।

अंग्रेजी भाषा की बात करें तो हम अक्सर इस तथ्य पर ज़ोर देते हैं कि उपनिवेशवाद की वजह से भाषा का प्रचार हुआ है। पर यह भी है कि पिछले पांच-छह दशकों से इस भाषा का विकास भी अमरीका और ब्रिटेन के बाहर ही संभव हुआ है। बोर्खेज़, नाबोकोव, मुराकामी से लेकर नायपॉल और रुश्दी तक सभी ने अंग्रेजी भाषा को नए मुहावरे और नई शैली से संपन्न किया है। अंग्रेजी भी इस तरह का लचीलापन प्रदान करती है कि आर के नारायण के ‘मालगुडी डेज़’ को पढ़ते हुए हमें महसूस होने लगता है कि हम अंग्रेजी नहीं, बल्कि कन्नड़ साहित्य पढ़ रहे हैं। इन कहानियों पर आधारित एक धारावाहिक मालगुडी डेज़ का प्रदर्शन भी दूरदर्शन पर हो चुका है।

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