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मेरा रंग दे बसंती चोला……..

शाम के क़रीबन 7 बज रहे थे, पूरे लाहौर में इंकलाब जिंदाबाद, भारत माता की जय, और ब्रिटिश साम्राज्य के ख़िलाफ़ नारे बाज़ी चल रही थी। और इन्हीं नारों के बीच देश के तीन सपूतों को अंग्रेजों ने तय दिन और वक़्त से पहले ही फाँसी पर चढ़ा दिया।

तारीख़ थी 23 मार्च 1931… भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को लाहौर षडयंत्र केस में फाँसी पर चढा दिया गया। इन वीरों को फाँसी की सजा देकर अंग्रेज सरकार समझ रही थी कि भारत की जनता डर जाएगी और स्वतंत्रता की भावना को भूलकर विद्रोह भूल जाएगी। लेकिन असल में ऐसा नहीं हुआ, बल्कि इस शहादत के बाद भारत की जनता पर स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने का रंग इस तरह चढ़ा कि भारत माता के हजारों सपूतों ने सर पर कफन बाँध अंग्रेजों के खिलाफ जंग छेड़ दी। शहादत की ये ख़बर पूरे शहर में आग सी फैल गयी, हजारो की संख्या में लोग जेल के बाहर इक्कठा होने लगे और इंकलाब जिन्दाबाद के नारे लगाने लगे।

जनता के उग्र प्रर्दशन से बचने के लिए ब्रिटिश पुलिस ने शवों को रातों-रात फिरोजपुर शहर में सतुलज नदी के किनारे ले जाकर जला दिया। जब लाहौर के निवासियों को ये बात पता चली तो अनगिनत लोग देश के वीर शहीदों को श्रद्धांजली देने वहाँ पहुँच गये और लौटते समय इस पवित्र स्थल से स्मृति के रूप में एक-एक मुठ्ठी मिट्टी अपने साथ ले गये। बाद में इसी स्थान पर एक विशाल स्मारक का निर्माण किया गया। जहाँ हर साल 23 मार्च को लोग उन्हे श्रद्धांजली अर्पित करते हैं।

इन क्रांतिकारियों ने देश को आज़ादी दिलवाने के लिए अपने प्राण हंसते-हंसते न्योछावर कर दिए। ये दौर वो था जब एक तरफ़ अहिंसा के मार्ग पर चल कर देश को आज़ादी दिलाने का प्रयास जारी था, तो वहीं दूसरी तरफ़ ईंट का जवाब पत्थर से देने की सोच रखने वाले भगतसिंह और उनके साथी निडरता और वीरता का परिचय दे रहे थे और आज़ादी की लड़ाई में इन वीर सपूतों ने अपने के प्राणों की आहूति दे दी। इतिहास इस बात का गवाह है की कैसी रही होगी उनकी सोच…

असेम्बली हॉल में बम फेंकने के बाद उनके पास पर्याप्त समय था कि भगत सिंह एवं उनके साथी वहां से भाग सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। इस हमले के पीछे उनका इरादा किसी को मारना नहीं बल्कि अंग्रेजी हुकूमत के कानों तक इस गूंज को पहुँचाना था कि भारत हरगिज़ गुलाम नहीं रहेगा, एक दिन भारत आजाद होगा। वे जानते थे कि एक दिन ये छोटी सी चिंगारी एक भयानक आग का रूप लेगी और अंग्रेजी शासन की जड़े उखाड़ देगी। क्योंकि भगतसिंह जानते थे कि ‘मौत इंसान की होती है, विचारों की नहीं।’उन्होंने अंग्रेजों के बारे में कहा था कि ‘वह मेरे सिर को कुचल सकते हैं, विचारों को नहीं। मेरे शरीर को कुचल सकते हैं, मेरे जज्बे को नहीं’। भगत सिंह हमेशा से बदलाव के हिमायती रहें थे। उन्होंने इस बात का जिक्र करते हुए कहा था कि, ‘लोग हालात के अनुसार जीने की आदत डाल लेते हैं, बदलाव के नाम से डरने लगते हैं, ऐसी सोच को क्रांतिकारी विचारों से बदलने की जरूरत है। तभी भारत माता को गुलामी की ज़ंजीरों से मुक्त कराया जा सकता है।

राष्ट्रीय कवि “रामधारी सिंह दिनकर” ने अपनी एक कविता में कहा भी है…

जला अस्थियाँ बारी-बारी

चिटकाई जिनमें चिंगारी,

जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर

लिए बिना गर्दन का मोल

कलम, आज उनकी जय बोल।

जो अगणित लघु दीप हमारे

तूफानों में एक किनारे,

जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन

माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल

कलम, आज उनकी जय बोल।

पीकर जिनकी लाल शिखाएँ

उगल रही सौ लपट दिशाएं,

जिनके सिंहनाद से सहमी

धरती रही अभी तक डोल

कलम, आज उनकी जय बोल।

अंधा चकाचौंध का मारा

क्या जाने इतिहास बेचारा,

साखी हैं उनकी महिमा के

सूर्य चन्द्र भूगोल खगोल

कलम, आज उनकी जय बोल।

उनकी पुण्यतिथि पर देश उन्हें श्रद्धांजलि दे रहा है और आजादी के आंदोलन में उनके योगदान को याद कर रहा है। लेकिन क्या शहीद दिवस पर उन्हें महज़ याद कर प्रतिमा पर फूलमाला चढ़ाना ही काफी होगा? शायद नहीं!! क्योंकि वास्तव में अगर हम उनके व्यक्तित्व और विचारों को समझकर उन्हें अपनाने की कोशिश नहीं करते तो शहीद क्रांतिकारियों को श्रद्धांजलि महज एक औपचारिकता ही रह जाएगी।

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