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डिजीटल हो रहा है इंडिया, विश्व गुरु बन रहा है भारत

हम एक बार फिर उसी मोड़ पर खड़े हैं। और आने वाले कुछ वर्षों में हम जो फ़ैसले लेंगे, उनकी दशकों बाद इतिहासकार निश्चित रूप से समीक्षा करेंगे. वो इस बात की पड़ताल करेंगे कि किस तरह डिजिटल तकनीक ने व्यक्तियों, समुदायों, राष्ट्रों ने उस विश्व को नए सिरे से परिभाषित किया, जो उन्हें विरासत में मिला था।

कोरोना वायरस, कोविड-19, डिजिटल युग, विज्ञान और तकनीक, मीडिया, सामरिक अध्ययन, सार्वजनिक स्वास्थ्य, अंतरराष्ट्रीय मामले जो प्रक्रियाएं किसी दौर में राष्ट्रीयता के अधिकार क्षेत्र में आती थीं, वो बड़ी तेज़ी से अब अप्रशासित डिजिटल दुनिया का हिस्सा बनती जा रही हैं. फिर चाहे राजनीतिक संवाद हो, व्यापार एवं वाणिज्य हो या फिर राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मसले। इससे विश्व में एक ऐसी परिस्थिति विकसित हो रही हैं, जिसे मैंने पहले ‘प्लेटफॉर्म प्लैनेट’ की संज्ञा दी थी. ये बिल्कुल स्पष्ट है कि कोरोना वायरस के प्रकोप के चलते ये प्रक्रिया और भी तेज़ होगी. जिसके कारण हमारी तकनीकी व्यवस्था एवं सामाजिक व्यवस्था आपस में मिल जाएंगे. और इनके साथ ही हमारी सामाजिक असमानताएं और विभिन्न समुदायों के बीच की दरारें भी नई व्यवस्था का हिस्सा बन जाएंगी.

दुनिया में हो रहे इस बदलाव से जुड़ा हुआ सबसे उचित प्रश्न डिजिटल तकनीक तक लोगों की पहुंच का है. ज़रा सोचिए कि सोशल डिस्टेंसिंग के इस दौर में तमाम सरकारों पर प्रशासनिक व्यवस्था को चलाने और जनता को ज़रूरी सेवाएं देने का कितना अधिक दबाव होगा. उन अभिभावकों की आवाज़ें सुनिए, जो अपने बच्चों को शिक्षा के अवसर न मिल पाने से फ़िक्रमंद हैं. या फिर, ऐतिहासिक रूप से समाज के हाशिए पर पड़े तबक़े की मांग के बारे में सोचिए, जो घर से बैठ कर काम नहीं कर सकते. ज़िंदगी, सुरक्षा और रोज़ी रोटी जैसे सभी अहम सवालों के जवाब की गारंटी वर्चुअल माध्यमों से देनी होगी. ऐसे में दुनिया भर की सरकारें इन सुविधाओं को देने के लिए किस तरह से संघर्षरत होंगी.

इस चुनौती से निपटने के लिए कई तकनीकी कंपनियां व्यवस्था परिवर्तन के सकारात्मक विकल्प देने में सक्षम होंगी. क्योंकि ये कंपनियां अपने लिए नए क्षेत्र विकसित करने का प्रयास कर रही हैं. और वो करोड़ों सामाजिक और वाणिज्यिक संवादों में शामिल होने के लिए मुक़ाबले के मैदान में उतरेंगी. इनमें से कई विषय तो अब हमेशा ऑनलाइन ही प्रतिपादित किए जाएंगे. मिसाल के रूप में, इस महामारी के दौर में वीडियो कॉन्फ़्रेंस की तकनीक बहुत बड़ी मददगार बन कर उभरी है. जो सरकारों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों को सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए अपना काम संपादित करने में अहम भूमिका निभा रही है. और आगे चल कर तमाम देशों की सरकारें ऐसे डिजिटल औज़ारों का उपयोग बढ़ाएंगी, जिनकी मदद से वो स्वास्थ्य संबंधी निगरानी कर सकेंगी. लोगों से क्वारंटीन में रहने की शर्त का पालन करा सकेंगी. इन परिस्थितियों में तकनीक का इस्तेमाल करने वाले की निजता, उसके अधिकारों और डेटा संरक्षण को लेकर होने वाली परिचर्चाएं और अवधारणाएं आने वाले वर्ष में काफ़ी कुछ बदल चुकी होगी.

कोविड-19 के कारण आने वाले समय में ग़लत सूचनाओं का प्रसार रोकने के नाम पर, सेंसरशिप की ताक़तवर व्यवस्थाओं के विकसित होने का ख़तरा है. और इसी के समान चिंता की बात है, इस संकट के समय तकनीकी कंपनियों के दखल देने की शक्ति. और तकनीकी कंपनियों के बीच ख़तरनाक सहयोग या संघर्ष की संभावना

इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस तकनीकी रूपांतरण से जो सबसे बड़ा बदलाव आने जा रहा है, वो है तकनीक और किसी समाज के बीच संबंध के रंग रूप में होने वाला संरचनात्मक परिवर्तन. पिछले दो दशकों में दो ऐसी मूलभूत धारणाएं रही हैं, जिन्होंने तकनीक और समाज के बीच इस लगातार परिवर्तित होने वाले रिश्ते को परिभाषित किया है. पहली अवधारणा तो इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के दौरान विकसित हुई थी. जिसके अनुसार, उभरती हुई तकनीकों में ये शक्ति है कि वो लोगों को बहुत सी कुरीतियों और बुरे हालात से मुक्त करेंगी. और साथ ही साथ इस धारणा के समर्थक ये कहते थे कि लोग तकनीक के माध्यम से हो रहे इस परिवर्तन और उठा-पटक को सामाजिक रूप से स्वीकार करेंगे. इस विषय में दूसरा दृष्टिकोण, जो इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में विकसित हुआ, वो पहली धारणा के ठीक विपरीत था. इस धारणा के प्रतिपादकों को उभरती हुई तकनीक से सामाजिक परिवर्तन की अपेक्षाएं नहीं, बल्कि उन पर संदेह होने लगा था. इस धारणा को मानने वालों का कहना था कि उभरती हुई तकनीकी दुनिया ने हमारे सामाजिक जीवन में सकारात्मक भूमिका नहीं निभाई. वो इन तकनीकों को शक की निगाह से देखने लगे थे. उन्हें लगता था कि इन तकनीकों को विकसित करने वाली बड़ी बड़ी टेक्नोलॉजी कंपनियां और इनकी मदद से सशक्त हो रहे राष्ट्रों और उनके इरादों को शक की नज़र से देखने की आवश्यकता है.

नए कोरोना वायरस का प्रकोप इन दोनों ही धारणाओं के समेकन की मांग कर रहा है. साथ ही साथ तकनीकी परिवर्तन को लेकर नए दृष्टिकोणों की भी आवश्यकता है, जिन्हें बहुत ही कम समय में विकसित करना होगा. क्योंकि अब समय बहुत कम बचा है. आने वाले वर्ष में जो भी फ़ैसले लिए जाएंगे, वो या तो हमारी ज़िंदगी में स्थायी भाव ले आएंगे. या फिर, आने वाले दशक में हमें कुछ ख़ास पथों पर चलने की ओर अग्रसर करेंगे. जिन तकनीकों के बारें में पहले समाज ये सोचता था कि उन्हें ज़िंदगी में शामिल करने से पहले और अधिक समीक्षा की आवश्यकता है. वैसी तकनीकें अब तेज़ी से हमारी ज़िंदगी का हिस्सा बनने की ओर अग्रसर होंगी. जैसे कि स्वास्थ्य के क्षेत्र में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (AI) का इस्तेमाल. उम्मीद यही है कि ऐसी तकनीकों को तेज़ी से विकसित करके हमारी ज़िंदगी का हिस्सा बनाया जाएगा. इस बीच, उपभोक्ता से जुड़ी तकनीकें जो बड़ी तेज़ी से प्रगति के नए कीर्तिमान स्थापित कर रही हैं, जैसे कि वीडियो कांफ्रेंसिंग या वित्तीय तकनीक के मंच. उन्हें उपभोक्ताओं और सरकारों द्वारा और अधिक सूक्ष्म परीक्षण से गुज़रना होगा. क्योंकि उनका इस्तेमाल उपयोगिता के आधार पर होगा.

अब जबकि आने वाले समय में इन दोनों तकनीकी दृष्टिकोणों का संश्लेषण देखने को मिलेगा. तो, अंतरराष्ट्रीय समुदाय के पास नए अवसर भी होंगे और नई चुनौतियां भी सामने आएंगी। शायद जो पहली और सबसे स्पष्ट चुनौती होगी, वो होगी लगभग अप्रशासित डिजिटल क्षेत्र से निपटने की। निश्चित रूप से इस महामारी के साथ सूचना की महामारी अथवा इन्फोडेमिक (infodemic) भी आई है। जिसके चलते ग़लत और झूठी जानकारियों की तमाम सोशल मीडिया पर बाढ़ सी आ गई थी। आज सोशल मीडिया के बारे में ये कहा जा सकता है कि ये व्यवहारिक रूप से मुख्य धारा के मीडिया की भूमिका भी हड़प रहा है। और आज सोशल मीडिया के मंच जनता की राय गढ़ने वाली परिचर्चाओं का प्रमुख मंच बन गए हैं।

जेनेटिक प्राइवेसी से जुड़े कार्यकलापों और उनका प्रबंधन करने वाले संस्थान, आने वाले समय में नए और अनजान जोख़िम पैदा करेंगे, जिनसे हमारे विशिष्ट जीव होने के बुनियादी अधिकार पर ही ख़तरा मंडराने की आशंका है। फेक़ न्यूज़ (Fake News) इस जोख़िम का इकलौता आयाम नहीं है. इससे निपटने का जो तौर तरीक़ा अपनाया जा रहा है, उससे भी बराबर का ख़तरा है। कोविड-19 के कारण आने वाले समय में ग़लत सूचनाओं का प्रसार रोकने के नाम पर, सेंसरशिप की ताक़तवर व्यवस्थाओं के विकसित होने का ख़तरा है। और इसी के समान चिंता की बात है, इस संकट के समय तकनीकी कंपनियों के दखल देने की शक्ति. और तकनीकी कंपनियों के बीच ख़तरनाक सहयोग या संघर्ष की संभावना। मिसाल के तौर पर कुछ तकनीकी मंचों ने ब्राज़ी के राष्ट्रपति जायर बोल्सोनारो द्वारा अपलोड किए गए कंटेंट को अपने अपने प्लेटफॉर्म से हटा लिया। क्योंकि उनके अनुसार ब्राज़ील के राष्ट्रपति द्वारा पोस्ट किया गया कंटेंट ग़लत सूचनाएं प्रसारित करने वाला था। लेकिन, क्या तकनीकी कंपनियों के पास के शक्ति होनी चाहिए कि वो किसी राष्ट्राध्यक्ष द्वारा पोस्ट की गई जानकारि को सेंसर कर सके? वहीं, दूसरी ओर एक प्रश्न ये भी है कि क्या तकनीकी कंपनियों को सरकार के साथ साझेदारी करके, नए उपायों के माध्यम से इस महामारी के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करने में सहयोग करना चाहिए। क्योंकि ऐसे प्रतिबंध तो महामारी के बाद भी जारी रह सकते हैं।

इसी से संबंधित दूसरा ख़तरा डेटा साझा करने के तौर तरीक़े हैं. तकनीकी कंपनियां, स्वास्थ्य संगठन और सरकारें जिस तरह से कोविड-19 से जुड़े आंकड़े साझा कर रही हैं, उनकी बहुत कम निगरानी हो पा रही है. कोई जवाबदेही तय नहीं हो पा रही है। ये चलन सिर्फ़ महामारी के दौर तक सीमित रहने वाला नहीं है। इसके बजाय, कोविड-19 के कारण एक ऐसा युद्ध क्षेत्र विकसित होने की आशंका है, जो हमारी जैविक और डिजिटल दुनिया में विकसित किए गए आंकड़ों के मेल से तैयार होगा. निश्चित रूप से कुछ तकनीकें जो इस वायरस का प्रकोप फैलने से पहले ही बड़ी तेज़ी से काम में लगाई जा रही थीं, वो जीनोमिक्स से जुड़ी नई तकनीकें थीं। जेनेटिक प्राइवेसी से जुड़े कार्यकलापों और उनका प्रबंधन करने वाले संस्थान, आने वाले समय में नए और अनजान जोख़िम पैदा करेंगे, जिनसे हमारे विशिष्ट जीव होने के बुनियादी अधिकार पर ही ख़तरा मंडराने की आशंका है।

इस तकनीकी क्रांति से हमारे तकनीकी भविष्य को जो तीसरा ख़तरा है, वो है साइबर दुनिया की अखंडता को चोट पहुंचाने का प्रयास।जहां ज़्यादातर देश आज भी महत्वपूर्ण मूलभूत ढांचे को क्षति पहुंचने को लेकर ही आशंकित हैं (संयुक्त राष्ट्र ने पहले ही डिजिटल युद्ध विराम की अपील की है), वहीं कोविड-19 महामारी फैलने से छोटे मोटे साइबर अपराध भी बढ़ जाएंगे। ये निम्न स्तर की साइबर घटनाएं हैं. लेकिन, इनका लोगों के सामाजिक और वित्तीय जीवन पर गहरा दुष्प्रभाव पड़ेगा। ये ऐसे ख़तरें हैं जिनसे किसी देश की संस्थागत राष्ट्रीय सुरक्षा को तो ख़तरा नहीं है. लेकिन, ये साइबर अपराध व्यक्तिगत डिजिटल स्वतंत्रता को प्रभावित करते हैं। कोविड-19 महामारी फैलने के बाद निजी जानकारियां निकालने के लिए फ़र्ज़ी ई-मेल भेजने और टेलीमेडिसिन से जुड़े घोटालों की बाढ़ सी आ गई है। ये सभी साइबर दुनिया के अपराधों में वृद्धि की ओर ही इशारा करते हैं। जिस वक़्त भूमंडलीकरण अपना अस्तित्व बचाने के लिए डिजिटल अमृत के भरोसे है, उस समय ऐसे साइबर अपराधों से तकनीक पर लोगों के भरोसे को गहरी क्षति पहुंचेगी।

डिजिटल दुनिया से जो चौथा ख़तरा है, वो ये है कि एक आम इंसान डिजिटलकीरण की इस तेज़ प्रक्रिया में बिल्कुल पीछे छूट जाएगा। हमारी पीढ़ी में सबसे अधिक इस्तेमाल होने वाला राजनीतिक जुमला समाज में असमानता का रहा है। तकनीकी क्रांति ने इस सामाजिक असमानता को अक्सर बढ़ाने का ही काम किया है।

डिजिटल दुनिया से जो चौथा ख़तरा है, वो ये है कि एक आम इंसान डिजिटलकीरण की इस तेज़ प्रक्रिया में बिल्कुल पीछे छूट जाएगा। हमारी पीढ़ी में सबसे अधिक इस्तेमाल होने वाला राजनीतिक जुमला समाज में असमानता का रहा है। तकनीकी क्रांति ने इस सामाजिक असमानता को अक्सर बढ़ाने का ही काम किया है. जिन देशों में हर नागरिक को अच्छी इंटरनेट सेवा उपलब्ध नहीं है, वहां के लोग बहुआयामी सामाजिक आर्थिक चुनौतियों का सामना कर रहे हैं. क्योंकि इस महामारी ने उनसे आवश्यक सार्वजनिक संसाधनों तक पहुंच को छीन लिया है।

मगर, तकनीकी दुनिया की चुनौतियां इससे परे भी हैं. अब जबकि महामारी के दौर में लोग ये सीख रहे हैं कि हर काम करने के लिए दफ़्तर जाना आवश्यक नहीं है। तो, तमाम उद्योग और वाणिज्यिक कंपनियों को भी इस बात का एहसास हो रहा है कि हर काम संपादित करने के लिए इंसानों की ज़रूरत नहीं पड़ती. आज इस महामारी के दौरान, जिस तेज़ी से आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (AI) और रोबोटिक तकनीकों का इस्तेमाल बढ़ रहा है, उससे एक ऐसी प्रक्रिया को बल मिलेगा, जिसे लेकर सरकारें और नीति निर्माता पिछले कई वर्षों से चिंतित हैं। और ये चुनौती है, तकनीक के कारण उत्पन्न होने वाली बेरोज़गारी।

आज इस महामारी के दौरान, जिस तेज़ी से आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (AI) और रोबोटिक तकनीकों का इस्तेमाल बढ़ रहा है, उससे एक ऐसी प्रक्रिया को बल मिलेगा, जिसे लेकर सरकारें और नीति निर्माता पिछले कई वर्षों से चिंतित हैं। और ये चुनौती है, तकनीक के कारण उत्पन्न होने वाली बेरोज़गारी।

तमाम सरकारों और नागरिकों के लिए इस महामारी के दौर में शायद जो सबसे अहम अवसर होगा, वो होगा एक वास्तविक वैश्विक डिजिटल दुनिया की संभावना को साकार करना। कोविड-19 महामारी से निपटने के दौरान सरकारें और समुदाय इस बात के लिए मजबूर हुए हैं कि वो छोटी छोटी जानकारियां आपस में साझा करें। कुछ अच्छी आदतें और महत्वपूर्ण तकनीकों को भी आपस में तेज़ी से साझा करें। मिसाल के तौर पर आज दुनिया में ऐसे उद्यमियों की संख्या बढ़ रही है, जो ओपन सोर्स और थ्री-डी प्रिटिंग की मदद से बने वेंटिलेटर के डिज़ाइन शेयर कर रहे हैं। शायद नागरिक संगठन और नीति निर्माता कोविड-19 की महामारी से उत्पन्न अवसर का लाभ उठाकर ऐसे पथ का निर्माण कर सकते हैं, जिनके माध्यम से नई तकनीकों और नई खोजों को दूसरे समुदायों और देशों के साझा किया जा सकता है। इस माध्यमों के ज़रिए वो बौद्धिक संपदा की सख़्त व्यवस्थाओं के बारे में नए सिरे से नियम तय कर सकते हैं। क्योंकि इन नियमों के चलते ही वो पहले ये तकनीकी जानकारी साझा नहीं कर पा रहे थे।

आज से क़रीब एक सदी पहले जब कोविड-19 से कहीं ज़्यादा घातक स्पेनिश फ्लू की महामारी फैली थी. और तब भी लोग एक दूसरे से दूरी बना रहे थे। तब बहुत से लोगों (मूल रूप से अमेरिकियों) ने दोस्तों, परिजनों और सहकर्मियों से संपर्क में बने रहने के लिए टेलीफ़ोन का इस्तेमाल किया था. निश्चित रूप से, उस समय ये एक नई तकनीक थी। और तेज़ी से मांग बढ़ने के कारण अक्सर इसकी सेवाएं ठप हो जाती थीं। लेकिन, इससे इस तकनीक और टेलीफोन के उद्योग को हमेशा के ठप करने के बजाय, स्पेनिश फ्लू ने इस बात का ज़ोर देकर एहसास कराया कि उस समय के समाज के लिए ये तकनीक कितनी महत्वपूर्ण है। आज एक सदी बाद ये बात बिल्कुल स्पष्ट है कि पूरी दुनिया को पास लाने और इसे एक वैश्विक गांव में बदलने में टेलीफ़ोन ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है।

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