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कैसे बाल गोपाल बने गीतकार ऋषि गोपाल दास नीरज…..

उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के पुरावली नामक गाँव मे बाबू ब्रजकिशोर सक्सेना के घर जन्म लेने वाला एक कैसे हिन्दी के काव्य मंचों की और हिन्दी फिल्मों की आवाज बना….

कारवाँ गुजर गया, लिखे जो खत तुझे, रंगीला रे तेरे रंग मे, शोखियों मे घोला जाये, ए भाई जरा देख दे चल….जैसे सुपर हिट गीत देने वाले गोपाल दास “नीरज” का शुरूवाती जीवन मखमली नहीं रहा। जब नीरज 6 वर्ष के थे तब उनके पिता का निधन हो गया… बताते है कि कुछ समय तो एक बालक यमुना नदी के आंचल मे छलांग लगाता और श्रद्धालुओ द्वारा फेके गए पैसे उठाता, उस बालक का नाम का गोपाल दास नीरज…फिर धीरे धीरे वक्त ने अपनी एक आवाज नीरज के रूप मे चुनी….

उन्होंने सबसे पहले आर चंद्रा की फिल्म ‘नयी उमर की नयी फसल’ के लिए गीत लिखे! पर वो फिल्म तो इतनी मशहूर नहीं हुई जितना उनका गीत ‘कारवां गुजर गया गुवार देखते रहे’ लोगो के दिलो पर छा गया..

कुमार विश्वास बताते है कि नीरज अपने दोस्त की छ्त से अपनी प्रेमिका की विदाई देख रहे थे.. और २३ साल के नीरज ने तब यह गीत लिखा…

स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई
पात-पात झर गए कि शाख़-शाख़ जल गई
चाह तो निकल सकी न पर उमर निकल गई

गीत अश्क बन गए छंद हो दफन गए
साथ के सभी दिऐ धुआँ पहन पहन गए

और हम झुके-झुके मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।

क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा
क्या जमाल था कि देख आइना मचल उठा
इस तरफ़ जमीन और आसमाँ उधर उठा
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा

एक दिन मगर यहाँ ऐसी कुछ हवा चली
लुट गई कली-कली कि घुट गई गली-गली
और हम लुटे-लुटे वक्त से पिटे-पिटे
साँस की शराब का खुमार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।

हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ
होठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ

हो सका न कुछ मगर शाम बन गई सहर
वह उठी लहर कि ढह गये किले बिखर-बिखर
और हम डरे-डरे नीर नैन में भरे
ओढ़कर कफ़न पड़े मज़ार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।

माँग भर चली कि एक जब नई-नई किरन

ढोलकें धुमुक उठीं ठुमक उठे चरन-चरन
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन चली दुल्हन
गाँव सब उमड़ पड़ा बहक उठे नयन-नयन

पर तभी ज़हर भरी गाज़ एक वह गिरी
पुँछ गया सिंदूर तार-तार हुई चूनरी
और हम अजान से दूर के मकान से
पालकी लिये हुए कहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।

सच-मुच जादूगर थे नीरज….

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