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उत्तर प्रदेश में जातीय राजनीति, हार और जीत का करती है फैसला

भारत के प्रत्येक हिस्से में जहां भी चुनाव होते हैं वहां जाति का बोलबाला रहता ही है।हालांकि समाज अपनी नाक बचाने के लिए भले ही जाति व्यवस्था के बारे में कुछ भी करें परंतु आज के भारत का सच यही है कि जैसे चुनाव जीतना है उसे जाति व्यवस्था का ध्यान रखना ही होगा। अगर हम केवल उत्तर प्रदेश की बात करें तो उत्तर प्रदेश में चुनाव, और चुनावों में जातीय राजनीति बहुत ज्यादा जरूरी है। प्रदेश में बिना जातीय राजनीति किए कोई भी व्यक्ति चुनाव नहीं जीत सकता।

उत्तर प्रदेश में प्रमुख रूप से वैश्य,यादव, ब्राह्मण, दलित, ठाकुर,मुस्लिम तथा गैर यादव ओबीसी जातियां वोट देती हैं। उत्तर प्रदेश में जब भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी थी तब ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय तथा गैर यादव ओबीसी जातियों ने भाजपा का खुलकर समर्थन किया था। कहा जाता है कि जब तक जातियां किसी दल के साथ खड़ी नहीं होती तब तक किसी दल का सरकार बनाना मुश्किल होता है। समाजवादी पार्टी मुस्लिम और यादवों का तुष्टीकरण कर सरकार में आती है तो मायावती दलितों के नाम पर राजनीति करके अपनी सरकार बना लेती हैं। कांग्रेस पार्टी पिछले कई दशकों से प्रदेश में सरकार नहीं बना पाई है उससे पहले वह केवल ब्राह्मणों और मुस्लिमों की राजनीति कर सरकार बना लेती थी। भारतीय जनता पार्टी ने ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय और गैर यादव ओबीसी वोटर्स को हिंदुत्व के रूप में संगठित कर प्रदेश में सरकार बनाने का काम किया था।

हालांकि भारतीय संविधान में जाति व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था के आधार पर लोगों के साथ भेदभाव करना गलत बताया गया है लेकिन उसके बावजूद जाति व्यवस्था के नाम पर चुनाव लड़ कर ही राजनेता लोकसभा और विधानसभाओं में जाते हैं। किसी भी प्रदेश में जितनी ज्यादा संख्या किसी जाति से आने वाले लोगों की होगी उस जाति के लोगों का तुष्टिकरण उस प्रदेश की राजनीति में उतना ज्यादा ही होगा। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के भीतर दलित तथा ब्राह्मणों को लेकर खूब राजनीति की जा रही है क्योंकि दलितों को भी कोई पार्टी अपनी तरफ खींचना चाहती है और ब्राह्मणों के 10% वोट पर भी विभिन्न पार्टियां अपना अधिकार करना चाहती हैं।

ऐसे में अब देखना यह होगा कि उत्तर प्रदेश की कौन सी जाति किस पार्टी के साथ बैठती है और किस पार्टी को आशीर्वाद देकर सत्ता में काबिज करती है?

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