भारत को विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश कहा जाता है। ये बात इस देश के नागरिक कई बार साबित भी कर चुकें है। फिर चाहे उनका तरीका अलग ही क्यों न हो। मौजूदा समय की बात करें तो पूरा देश इस समय लोकतंत्र के तर्ज पर नागरिक संशोधन कानून के खिलाफ सड़कों पर प्रदर्शन कर रहा है। इन प्रदर्शनकारियों का साथ कई राजनेता भी दे रहें है। ये वही राजनेता है जिनके राज में कई सालों तक लाखों हिन्दू पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में प्रताड़ना का शिकार हुए। विरोध प्रदर्शन करते इन नेताओं को आपने कई बार ये कहते सुना होगा कि उन्हें देश के मुस्लमानों की चिंता है। नेताओं को अगर यदि देश के मुसलमानों की चिंता है तो ये सवाल भी खड़ा होता है कि उन्हें पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आए हिन्दू शरणार्थियों (Refugee) की चिंता क्यों नहीं है? क्या कभी इन नेताओं ने पिछले 70 सालों में हिन्दुओं पर हुए अत्याचार के लिए आंदोलन किया? ऐसे कई सवाल है विपक्षी पार्टियों को सवालों के कटघरें में खड़ा करने के लिए काफी है।
जिस तरह से सड़कों पर कांग्रेस और अन्य वामपंथी दलों द्वारा आगजनी की जा रही है कि उसे देखते हुए ऐसा ही लग रहा है कि उन्हें देश के मुसलमानों की चिंता नहीं बल्कि अपने वोट बैंक का भय है। गृहमंत्री लगातार देश के मुसलमानों को आश्वासन दे रहें है कि इस कानून से उन्हें घबराने की जरूरत नहीं है। लेकिन विपक्ष किसी और ही पथ पर अग्रसर है। देश जहां एक ओर नागरिकता कानून के विरोध में सुलग रहा है तो वहीं राजनौतिक पार्टियां इस आग में घी डालने का काम कर रही है। नेताओं के भड़काऊ भाषणों ने देश को सांप्रदायिकता की आग में धकेल दिया है। दिलचस्प बात तो ये है कि जो लोग सड़कों पर उतरे है उन्हें कैब और एनआरसी का असल मतलब भी नहीं पता। उनके चेहरें से साफ झलकता है कि बस किसी तरह से हिन्दू शरणार्थियों (Refugee) को देश की नागरिकता देने से रोका जाए।
राजनैतिक पार्टियों के तेवर साफ है कि उन्हें न पहले कभी हिन्दू शरणार्थियों (Refugee) की परवाह थी और न कभी भविष्य में होगी। उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं है कि जिन हिन्दुओं की आबादी 1947 के समय पाकिस्तान में 30 प्रतिशत के आसपास थी वो आज केवल 1 प्रतिशत रह गई है। मोदी सरकार ने इन शरणार्थियों के लिए अब जो निर्णय लिया है उसे काफी सालों पहले दूसरी सरकारो को लेना था। अगर ऐसा हुआ होता तो शायद आज ऐसे देशद्रोही आंदोलन की आग में विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश यूं सुलग नहीं रहा होता।